Sunday, 24 December 2017

यात्रा वित्रांत 23/12/17

साहबां मेहरबां कदरदां,
आज फिर से यात्रा में हूं,  हां वही रेल यात्रा..
परीक्षा का आखिरी दिन था, शाम की ही ट्रेन पकड ली है. ये इम्तिहान वाले दिन गिन गिनकर ही कटते हैं, परीक्षा खत्म होती है तो लगता है किसी काले पानी की सजा से जमानत में छूटे हों.
बहरहाल, ट्रेन की यात्रा पर यदि गौर किया जाए तो आपको बेहद रोमांचक और आश्चर्यजनक प्राणी सफर करते हुए मिल जाएंगे और जब ट्रेन में भीड अधिक हो तो ये प्राणी अपने जीवन का सर्वोत्तम प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं..  आज भी कुछ ऐसा ही दिन है.. भीड कुछ इतनी है कि खडे हुए लोगों से ज्यादा तकलीफ बैठे हुए लोगों को हो रही है. दृष्टि बाधित है, और लोगों की आवाजाही चालू है. 
साथ में दो दोस्त आए थे जो अब साथ नहीं हैं ,दोनो ने अपना अपना इंतजाम विंडो सीट पर कर लिया है, हालांकि खिडकी उनके किसी मतलब की नहीं है क्योंकि उन्होंने हाथ में फोन थामा हुआ है और बाहर झांकने की उन्हें बिल्कुल भी फुरसत नहीं है.

इसी बीच दो मोहतरमाओं ने प्रवेश किया है जिन्हें अभी तक दोनों पाँव पर खडे होने को भी जगह नहीं मिल पाई है. ये दोनो आते ही अपने लिए सीट की व्यवस्था में लग गयी हैं जिसके लिए दिमाग से ज्यादा मुँह चला रही हैं . इसी बीच एक मोहतरमा ने आशा भरी नजरों से मेरी ओर देखा है, मगर मेरी मजाल जो मैं अपनी सुविधा से जरा भी समझौता करके उन्हें देने का प्रस्ताव रखता, भला मैं क्यों किसी को अपनी सीट सिर्फ इसलिए दे दूं क्योंकि वो एक लडकी है,वैसे भी साहब मैं लिंग भेद (gender discrimination) के सख्त खिलाफ हूं. अगर मैं उन्हें सीट दे देता तो इसका मतलब नैं महिला वर्ग को पुरुषों से हीन समझता हूँ, जो कि बिल्कुल गलत है.  अंततः उन्होंने हमारे सर के ऊपर वाली बर्थ पर कब्जा जमा लिया है.

माहौल में बोरियत शुमार ही होने वाली थी कि सामने की बर्थ वाले व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रिय अचानक सक्रिय हो गयी.  मानो उनकी ज्ञान चक्षु सामने वाली मोहतरमाओं के आगमन का ही इंतजार कर रही हों.. वैसे भी देश में सबसे ज्यादा ज्ञानी व्यक्ति ट्रेन में और पान की दुकान में ही पाए जाते हैं, और अगर आपको ऐसे व्यक्ति न मिलें तो यात्रा करना और पान खाना दोनो ही व्यर्थ है.

महाशय ने माता पिता द्वारा लड़कियों को पढा लिखाकर उनकी शादी ऐसे जगह कर देने पर रोष प्रकट किया है जहां उन्हें घर सम्हालना पडता है, इस मंतव्य से उन मोहतरमाओं पर सकारात्मक प्रभाव पडा है और उनकी रुचि महाशय के बारे में बढ गई है,इसी क्रम में महाशय पिछले ढाई मिनट से अलग अलग क्षेत्र में अपनी कागजी ढिग्रियां गिनाए जा रहे हैं ,इससे हमें यह ज्ञात हुआ है कि साहब पटवारी की परीक्षा देकर लौटे है और अभी तक बेरोजगार ही हैं, वैसे इतना ज्ञान बेरोजगार व्यक्ति के पास ही हो सकता है .

इसी बीच एक अति संवेदनशील माजरा आया है ,  बाजू में खडी आंटी ने मुझसे पैर में दर्द होने का हवाला देकर साथी आंटी की सिफारिश कर दी है, इस स्थिति में मेरे भीतर ही भीतर वाद विवाद शुरू हो गया और मेरे सारे तर्क मानव मूल्यों से हार गए और अंततः मैनें अपनी बहुत ही प्यारी सीट आंटी जी को तोहफे में भेंट कर दी है ..

और भी बहुत कुछ है लेकिन फिर कभी...

Tuesday, 1 August 2017

जरूरत क्या है

तुम्हें चांद तारो की जरूरत क्या है,
इन मौसमी बहारों की जरूरत क्या है

मेरे दुश्मन निभा रहे हैं मुझसे दुश्मनी बेहतर,
फिर दगाबाज यारों की जरूरत क्या है

मेरी कलम काफी है दुनिया में इंकलाब लाने को,
मुझे मंहगे हथियारों की जरूरत क्या है

तेरी मुस्कान काफी है इसके लुट जाने को,
इस दिल को बडे बाजारों की जरूरत क्या है

इक हमराह चाहिए जो मंजिल तक साथ दे,
मुझे राहबर हजारों की जरूरत क्या है

तू चुप रहे तो तेरी खामोशी बात करती है,
फिर इन कातिल इशारों की जरूरत क्या है

Monday, 20 February 2017

मेरी दुनिया

तन्हाईयाँ बाटने के लिए यहां इंसान नहीं मिलता साहब, इसलिए हमने अपनी एक अलग दुनिया बना रखी है,  मेरी अपनी ख्वाबों की दुनिया जिसमें मैं कभी भी, कहीं से भी दाखिल हो सकता हूँ,  समझिए server से कनेक्ट होने जैसा है। मजे की बात ये है कि इसमें client भी मैं ही हूँ और server भी।
और सबसे काम की बात बताता हूँ , वहां Engineering नाम की कोई पढाई नहीं होती, और न ही strength of material जैसा कोई विषय है।
वहां पर कुछ मेरे ही जैसे लोग हैं जो बिल्कुल मेरी तरह ही दिखते हैं। मेरी तरह ही सभी के पास हजारों कहानियां हैं जो हम एक दूसरे को सुनाते रहते हैं, कोई जीत की, कोई हार की, कोई दर्द की, कोई प्यार की रोमांचक कहानियां सुनाता है। वहां कोई शख्स परेशान नहीं दिखता मुझे सभी साथ हंसते हैं साथ खेलते हैं।
वहां किसी को भूख भी नहीं लगती और न ही वहाँ गरीब और अमीर रहते हैं,  वहां सिर्फ इंसान रहते हैं।
वहां कोई किसी को तकलीफ नहीं देता सब programmed हैं मेरी दुनिया में और वहां का programmer मैं ही हूँ न,  लेकिन वहां की programming #include<stdio.h> से नहीं शुरू होती, वहाँ सारी programming मेरे विचारों से ही हो जाती है।
कितना सुकून मिलता है उस दुनिया में,मेरा बस चले तो मैं वहाँ से कभी वापस ही न आऊ,  भला कौन लौटना चाहेगा ऐसी दुनिया से जो इस बेकार, निर्दयी और संवेदनहीन दुनिया से परे हो,जिसमें हजारों रोमांचक कहानियां कैद हो और जहां आप कभी तन्हा न रहें।

सत्यम शुक्ला "सरफरोश"